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रेकी

 मानसश्री गोपाल राजू
30, ससविल लाइन्स
रूड़की - 247 667 (उत्तराखण्ड)
www.bestastrologer4u.com
रेकी चिककत्सा अथिा स्पर्श चिककत्सा प्रद्दतत के प्रणेेता डॉ. तनकाओ उसुई को माना जाता है । रेकी एक जापानी र्ब्द है। 'रे' का अथश है - ईश्िरीय सृष्टि अथाशत् ब्रह्माण्ड और 'की' का अथश है प्राणे ऊजाश अथाशत् जीिन र्ष्तत । रेकी का मूल उ􀆧ेश्य भी ब्रह्माण्ड से प्राणे ऊजाश को प्राप्त करना है। यह िह ईश्िरीय र्ष्तत है जो जीिन में जीित्ि का संिार करके उसको स्िस्थ, प्रसन्न और प्राणे ऊजाश से सम्पन्न बनाती है। इसमें दो-तीन दर्क से रेकी का व्यापक प्रिार हुआ है। परन्तु देखा जाए तो प्राणे ऊजाश का संिार अनादद काल से महापुरूषों द्िारा ककया जाता रहा है। यह ऊजाश अपनी दृढ़ इच्छा र्ष्तत, योग
साधना, संयसमत जीिन, आध्याष्त्मक पथ आदद द्िारा स्ियं अष्जशत ककया गया हो तब तो यह एक अलग विषय है। परन्तु यह तथ्य तछपा नहीं है कक अन्य ककसी के द्िारा जो ज्ञान और उपलष्ब्ध आज व्यिहार में परोसी जा रही है उसमें ककतनी मौसलकता है और उसका प्रभाि ककतना प्रभािर्ाली। जो कोई रेकी कर रहा है उसका प्रभाि िस्तुतः उसकी योग्यता, उसकी भािना, उसकी साधना तथा उसके संयम पर पूणेशतया तनभशर करता है। यदद रेकीकताश पूणेशतया अपनी पात्रता में पररपति है तब तो व्यष्तत में जीिन र्ष्तत का संिार होगा ही होगा। रेकी ज्ञान का प्रिार भारत से ततब्बत, िीन होते हुए जापान पहुुँिा। डॉ. उसुई ने तनयम और क्रमानुसार बौद्द धमश के साथ-साथ इस ददव्य ज्ञान की दीक्षा ग्रहणे की और परम ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त जनदहत में इस का व्यापक प्रिार-प्रसार ककया था इससलए उनको रेकी का आधुतनक जनक भी कहा गया है। रेकी का गुप्त सूत्र स्थूल नहीं बष्कक सूक्ष्म र्रीर में तछपा हुआ है। इस गुप्ताददगुप्त भेद को जब तक नहीं समझा जाएगा तब तक रेकी कक्रया में प्रिीणे नहीं हुआ जा सकता ।
साधना िक्र प्रणेाली और रस स्त्रािी प्रणेाली में तारतम्य
बैठाकर स्थूल और सूक्ष्म र्रीर में सन्तुलन बनाया जाता हैं। उ􀆧ेश्य यदद आत्मा और परमात्मा के समलन को लेकर कक्रया की जा रही है तब तो बात ही कुछ और है। परन्तु ऐसा अचधकांर् होता नहीं है। तयोंकक भौततकिादी वििारधार और जीिन की अनन्त महत्त्िाकांक्षाओं के कारणे ददव्य ज्ञान में मन रमता ही नहीं है और रेकी का उपयोग भौततक और र्ारीररक सुखों के सलए होने लगता है। इसमें भी कोई बुराई नहीं है। बुराई तब प्रारम्भ हो जाती है जब इसका व्यिसातयक रूप से दोहन होने लगता है। जो कुछ भी है आइए देखते हैं कक इस ददव्य ज्ञान का संक्षक्षप्त सार-सत है तया?
सूक्ष्म र्रीर में सहस्त्रार िक्र के समीप पीतनयल ग्रष्न्थ ष्स्थत है। यहीं से ज्ञाता-क्षेय का तथा आत्मा और परमात्मा का एकाकार होता है। आत्मज्ञान और वििेकर्ष्तत के केन्र आज्ञािक्र के समीप आत्मसंिासलत नाड़ीतंत्र, रस स्त्रािी वपट्यूिरी ग्रष्न्थ ष्स्थत है इसी प्रकार थाइराइि ग्रष्न्थ, थाइमस ग्रष्न्थ, एड्रीनल आदद ग्रष्न्थयाुँ भी अनाहतिक्र, मणणेपूरिक्र, स्िाचधटठानिक्र के समीप ष्स्थत हैं। रेकी ऊजाश उपिार में इन ऊजाश केन्रों और िक्रों के सन्तुलन से र्रीर के भाि तरंगो में िृवद्द होने से र्रीर की सभी प्रणेासलयों में सन्तुलन स्थावपत हो
जाता है। साधक प्राणेायाम मष्स्तटक के स्नायु जाल (मष्स्तटक के सम्पूणेश दूवषत रतत को तनकालकर और हृदय में अचधकाचधक र्ुद्द रतत भरने पर) तथा मनोविकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, भात्समश, ईटयाश, द्िेष घृणेा और र्ोकादद) को दबाकर जहाुँ मानससक समता स्थापना में समथश होता है, िहीं र्रीर के अन्य स्नायुओं, ग्रंष्न्थ समूहों और मांसपेसर्यों को समृद्द, सर्तत और पुटि बनाता है। श्िास लेते हुए जब भािना करते हैं और मनःष्स्थतत बनाते हैं कक र्ुद्द िायु के साथ हमारा र्रीर सुन्दर, सर्तत, स्िस्थ एंि तनरोगी हो रहा है और श्िास छोड़ते समय भाि रखते हैं कक र्रीर के समस्त दूवषत विकार, मल आदद बाहर तनकल रहे हैं या कहें कक बाहर तनकालकर फेके जा रहे हैं तब रेकी कक्रया स्ितः अपना र्ोधन कायश करने लगती है। और यदद थोड़ा तत्ि ज्ञान प्राप्त कर लें और स्ियं अभ्यास में रम जाएं तो रेकी का पररणेाम बहुत ही अकपकाल में समलने लगता है । यह तनभशर करता है कक ककतनी जकदी अपने मन को ष्स्थर कर सलया जाए। मन एकाग्र करके अपनी स्िाभाविक श्िसन् कक्रया में सूयश के स्िणेशमय प्रकार्पुंज को ग्रहणे करने का अभ्यास करें। जब श्िास लें तब सूयश के स्िणेशपुंज में पहुुँिने का
अभ्यास करें । आपको लगने लगेगा कक सबकुछ प्रकार्मय है। जब श्िास बाहर तनकले तब भािना जगाएं कक प्रकार्पुंज सुदर्शन च्रक की भांतत घुमता हुआ धीरे-धीरे आपके ऊपर आ रहा है। श्िास की गतत के साथ बैंगनी आभा बबखराते हुए िह पुंज सहस्त्रार िक्र में प्रिेर् कर रहा है। कफर िह क्रमर्ः ज्ञानिक्र तक आते हुए नीलिणेश, विर्ुद्द िक्र में कफरोजी आभा, अनाहत िक्र में हररतिणेश, मणणेपूर में पीतिणेश, स्िाचधटठानिक्र में ससन्दूरीिणेश तथा मूलाधार में रततिणेी आभा फैलाकर आपके अन्दर ददव्य प्रेम, िेतना और उकलास भर रहा है।
यह तो हुआ तनःस्िाथश भाि से मात्र स्िान्तसुखाय रेकी अभ्यास । परन्तु इसको यदद स्ियं की अथिा अन्य ककसी की इच्छा पूततश के सलए कर रहे हैं तो इन आभा, तत्त्ि और षट्िक्रों की िैतन्यता के बाद पहले अपने को मन, कमश, और ििन से रेकी कक्रया देने का सुपात्र बना लें । जब रेकी की आिश्यकता िास्ति में हो तब अपने दोनों हाथों को पुटपाजंसल अपशणे करने की मुरा में बनाते हुए श्रद्दा भाि से रेकी र्ष्तत का आिाहन करें, 'हे देिीय ददव्य रेकी र्ष्तत मैं (अपना नाम अथिा उस व्यष्तत का नाम उच्िारणे करें
ष्जसको रेकी कक्रया द्िारा आप िैतन्यता प्रदान करना िाहते है ) का ददव्य उपिार करना िाहता हूुँ, कृपया अपनी ददव्य र्ष्तत का मेरे समस्त र्रीर में संिार करें।' इसके बाद अपने तथा कचथत गुरू का (यदद कोई धारणे ककया हो) आहिान करें, 'समस्त जाने-अनजाने रेकी मागशदर्शक गुरूजनों मैं रेकी उपिार करने हेतु आपका श्रद्दा से आिाहन कर रहा हूुँ। आप उपिार में मेरा सहयोग करें।' अब उुँगसलयों के प्रथम पोर पर तथा हथेली में पिशतों पर ष्स्थत सूक्ष्म धाररयों पर ध्यान केदरत करें। यही िह केन्र है जहाुँ से ऊजाश का संिार होगा। दोनों हाथों की दसों उुँगसलयों को क्रमर्ः परस्पर एक-दूसरे से घड़ी की सूई की ददर्ा में गोल घुमाते हुए रगड़ें। अथाशत् पहले एक हाथ की अनासमका के प्रथम पोर से दूसरे हाथ की अनासमका, कफर एक हाथ की मध्यमा से दूसरे हाथ की मध्यमा आदद क्रम से बारी-बारी पोरों को घषशणे करके ऊजाश उत्पन्न करें। दोनों हथेसलयों को अब एक दूसरे से दो फीि की दूरी पर रखकर धीरे -धीरे पास लाएं। यदद इस ष्स्थतत में लगता है कक हथेसलयों में कोई कम्पन्न, संिेदना, झनझनाहि आदद कुछ अनुभूत होती है तब समझ लें कक रेकी के सलए अब र्रीर तैयार है। यदद नहीं, तो पुनः िही वपछला उपक्रम दोहराएं । उुँगसलयों के िक्र
जब िेतन हो जाएं तब हथेली अथिा उुँगसलयों के पोरों से पीड़ड़त अंगों पर स्पर्श दें। अततररतत ऊजाश से तनरोगी र्रीर धीरे-धीरे रोग मुतत होने लगेगा। यदद अपनी श्िसन कक्रया रोगी की श्िसन कक्रया की लय के समान करके रेकी करेंगे तो लाभ की गतत और भी तीव्र हो जाएगी।
रेकी कक्रया में ससद्दहस्त होने के बाद मानससक अिसाद, रततिाप, हृदय रोग, ससरददश, सरिाईकल, अस्थमा, गदठया, गुदे यहाुँ तक कक कैंसर आदद जैसे असाध्य रोगों तक में लाभ पहुुँिाया जा सकता है। परन्तु रेकी विषय पर सलखना, पढ़ना, भाषणे सुनना आदद की अपेक्षा अपनी स्ियं की इच्छार्ष्तत, साष्त्िक जीिन के साथ सतत् िक्रों को िैतन्य करने का अभ्यास, साधना आदद अचधक तनभशर करेगा कक आप इस ददव्य र्ष्तत विद्या में ककतनी जकदी ससद्दहस्त हो पाते हैं।
मानसश्री गोपाल राजू
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