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खेचरी मुद्रा

मानसश्री गोपाल राजू
वैज्ञाननक
ससववल लाइन्स
रुड़की - 247 667 (उत्तराखण्ड)
घेरण्ड संहिता में 25 मुद्राओं का बिुत िी सुन्दर वर्णन सववस्तार से समलता िै। इन मुद्राओं में मिामुद्रा, ववपरीत मुद्रा, योनन मुद्रा, शाम्ममवी मुद्रा, अगोचरी मुद्रा, भूचरी मुद्रा, और खेचरी नामक इन सात मुद्राओं का ववशेष स्थान माना गया िै।
इन मुद्राओं से अंिकार, अननद्रा, भय, द्वेष, मोि आहद के पंचक्लेषदायक ववकारों का शमन िोता िै। अनेक शारीररक और मानससक रोगों से मुम्क्त समलती िै। ऋर्-प्रार् और धन-प्रार् का मुद्राओं द्वारा एकीकरर् िोता िै। म्जससे मम्स्तष्क को बल समलता िै और बुवि का ववकास िोता िै। मुद्राओं से कायण करने की क्षमता बढ़ती िै और ववशेष रूप से प्रार्भय कोष के अनावरर् में सिायता
समलती िै।
मुद्राओं में खेचरी मुद्रा का ववशेष स्थान माना गया िै। इसके द्वारा ब्रह्माण्ड में शेषशायी सिस्रदल म्स्थत परमात्मा का साक्षात्कार ककया जा सकता िै। इससलए यि मुद्रा अन्य मुद्राओं से अधधक मित्त्वपूर्ण िै।
कैसे साधन करें खेचरी मुद्रा
प्रारम्मभक अभ्यास में म्जव्िा के अग्रभाग को मोड़कर तालू से लगाने का प्रयास करें। धीरे-धीरे म्जव्िा को तालू के गड्डे में लटक रिे मांस के घण्टे को छूने का यत्न करें। म्जव्िा के अग्र भाग को प्रारम्मभक अवस्था में इस प्रकार पीछे की ओर मोड़ना अत्यन्त कहिन लगेगा। सरलता के सलए जीभ के अग्रभाग पर काली समचण पाउडर का िल्का सा लेप भी कर सकते िैं। इससे उत्तेजना उत्पन्न िोगी और म्जव्िा के अग्र भाग को तालू के पीछे तक खखसने से उत्तेम्जत तन्तु शान्त िोंगे।
जब म्जव्िा को इस प्रकार पीछे मोड़कर तालू के अन्त तक पिुुँचाने का अभ्यास सरल और सुगम लगने लगे तब साम्त्वक भाव से मन को ननमणल कर ककसी भी सुखद आसन में किीं शान्त जगि बैि जाएं। म्जव्िा के अग्रभाग को कंि में म्स्थत कौवे अथाणत् मांस के लटक रिे घंटे के मूल में खखसने का यत्न करें। सारा ध्यान इस भाग पर िी केम्न्द्रत कर लें। एक ऐसी अवस्था बिुत िी अल्प समय में आने लगेगी कक म्जव्िा तालू से स्पशण िो रिे तन्तु एक ववधचत्र
सा मीिा पदाथण अनुभव करने लगेंगे। ववधचत्र बात यि िोगी कक यि हदव्य समिास वाला पदाथण तालू के इस भाग पर िी आभास िोगा। म्जतना अधधक म्जव्िा को विाुँ खखसा जाएगा उतनी िी अधधक समिास और उसका हदव्य स्वाद अनुभव िोता जाएगा। यि हदव्य पदाथण वस्तुतः अमृत तुल्य िी िै। इसका पान करके िी ससि योगी, देवता, ऋवष-मुनी हदव्यता और अमृत्व को प्राप्त िुए िैं। यहद इस पदाथण को तालू से म्जव्िा द्वारा मुुँि के बािर ननकाल कर एकत्र करने का प्रयास ककया जाए तो यि कभी भी समभव निीं िोगा। एकदम ववधचत्र बात िै कक यि अमृत तुल्य पदाथण जब म्जव्िा के तंतु स्पशण करके अनुभव कर रिे िैं, उसके स्वाद का रसपान कर रिे िैं तब यि उस स्थान ववशेष से लाख प्रयास करने के बाद भी बािर क्यों निीं आ पाता।
अमृत पान से भरी िुई यि ववधचत्र खेचरी मुद्रा यहद ससि िो जाए तो इससे प्रार् शम्क्त का संचार िोने लगता िै। सिस्रदल कमल में अवम्स्थत अमृत ननर्णर र्रने लगता िै। इस हदव्य पदाथण के आस्वादन से हदव्य आनन्द की प्रवृम्त्त िोने लगती िै। प्रार् की उध्वणगनत िो जाने से मृत्यु काल में जीव ब्रह्मरन्र से िोकर िी प्रमार् करती िै, उसे मुम्क्त या स्वगण की प्राम्प्त िोती िै। सबसे बड़ी बात यि िै कक इस मुद्रा को अल्प समय में, लघु अभ्यास से सरलता से ससि ककया जा सकता िै और दूसरे इसको करने में ककसी भी प्रकार के अननष्ट की लेशमात्र भी समभावना निीं िै।
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